प्रेम की अधिकतर कहानियों में यही होता है की अपने से आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर तबके का एक साधारण सा लड़का और बहुत ऊँचे कुल खानदान और सामाजिक हैसियत वाली लड़की. खाप की भूमिका में परिवार और दोस्ती के लिए जान लुटाने को तैयार बैठे दोस्त, फिर बिछोह और दुनिया समाज से संघर्ष! अब अगर कहानीकार समर्थ है और रचना को क्लासिक बनाना चाहता है तो लड़का और लड़की बिछड़ जाते हैं, कुर्बान हो जाते हैं. और लोकप्रिय और सुखांत बनाना है तो लड़का लड़की समाज के बाहर अपनी एक नयी दुनिया बनाते है. अब इसी बेसिक प्लाट में जो चाहे वेरिएशन कर लीजिये और एक प्रेम कहानी तैयार! बीते दिनों खासी चर्चित रहा विमलेश त्रिपाठी का भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित उपन्यास “कैनवास पर प्रेम” भी इसी धारा की एक रचना है.
“कैनवास पर प्रेम”, एक चित्रकार सत्यदेव शर्मा के जीवन के कैनवास पर चढ़ते, उतरते प्रेम, जुदाई और समर्पण के विविध रंगों की कहानी है. सत्यदेव शर्मा को जीवन में दो बार अपने से आर्थिक और तथाकथित जातिय और सामाजिक रूप से बेहतर परिवार वाली लड़कियों से प्रेम हो जाता है. पर ये मोहब्बतें दोनों बार परवान नहीं चढ़तीं. एक उजाड़ बियाबान जिंदगी जीते सत्यदेव पर नज़र पड़ती है विमल बाबू की जो बकलम खुद एक चिरकुट लेखक हैं और उनके अन्दर का कथाकार, उनकी पत्नी के तमाम प्रतिरोधों पर हावी हो कर उनको सत्यदेव की कहानियाँ टुकड़ों में सुनने पर विवश सा कर देता है. कहानी सुनने के क्रम में सत्यदेव के जीवन के दो असफल प्रेम प्रसंगों से कुछ हद तक उद्दविग्न विमल बाबू, कोलकाता की एक प्रसिद्द आर्ट गैलरी में चल रही प्रदर्शनी से सत्यदेव शर्मा की दूसरी प्रेमिका, रिंकी सेन को खोज निकालते हैं और इसका हासिल यह होता है की सालों पहले के खोये प्रेम को अचानक अपने सामने देख कर आये हार्ट स्ट्रोक के कारण अस्पताल में पहुंचे सत्यदेव का हाल बयान कर कहानी एक ऐसे मोड़ पर ख़त्म होती है जहाँ से आगे हर सुखांत हर दुखांत की कल्पना करने को पाठक स्वतंत्र छोड़ दिया जाता है.
कहानी तो बहुत सामान्य सी है, दुनिया का सबसे हिट स्टोरी फार्मूला - प्रेम. पर इस प्रेम-कहानी को सुनने-सुनाने का अंदाज़ जुदा है. लेखक और कथाकार के साथ आप भी सत्यदेव शर्मा से टुकड़ों टुकड़ों में कथा सुनते हैं, बहुत सी चीज़ें समझते हैं और फिर जब कहानी का वो हिस्सा आता है जहाँ किस्सागोई अपने उरूज़ पर होती है वहीँ पर कथा रोक दी जाती है, और कुछ नया चलने लगता है. आप पन्ना दर पन्ना, लाइन दर लाइन, शब्द दर शब्द सत्यदेव शर्मा के बारे में जानने को उत्सुक हुए जा रहे हैं, “मयना” (सत्यदेव की पहली प्रेमिका) और “सैफू” (सत्यदेव का बचपन का मित्र) का क्या हुआ? ये सवाल आपको अगला पन्ना पलटने को विवश कर रहे हैं, की लेखक पत्नी के जाग जाने के डर का बहाना कर घर भाग आता है और सोने की असफल कोशिश करते हुए कहानी को एक विराम सा देने लगता है. आपको खीझ होती है कि ये क्या नौटंकी है भाई? पर आप आगे बढ़ते हैं कि चलो कोई नहीं संस्कारी पति है, माफ़ किया! पर तभी अचानक सत्यदेव का विचलन शुरू हो जाता है. जिस बन्दे को आप पिछली मुलाकात में “मयना” के साथ गुजरात भागने को तैयार छोड़ आये थे, वो अगली मुलाकात में कोलकाता के एक शराबी वाल पेंटर की कथा लेकर बैठ गया है. अचानक कहानी में रिंकी सेन आ जाती है जो पहले तो सत्यदेव के बहुत निकट आ जाती है फिर बिना बताये अचानक उससे बहुत दूर चली जाती है कोलकाता से सीधा अमेरिका. इस किस्सागोई में कहीं कोई तरतीब नहीं, कोई लय नहीं.
मैंने अपनी बीएड की पढाई भगवान् बुद्ध की महापरिनिर्वान स्थली कुशीनगर के बुद्ध पीजी कालेज से की है. वहां पास के कसबे कसया में फसलों के मौसम में सिनेमा हाल वाले एक प्रयोग करते थे. छोटी लो-बजट फिल्में 2/3 दिन के लिए लगा दिया करते और फिर हर तीसरे दिन फिल्म बदल जाती. इनमे ज्यादातर दक्षिण भारतीय कन्नड़, तेलुगु मलयालम फिल्में होती जो हिंदी में डब कर के दिखाई जाती थीं. एक बार एक फिल्म देखी थी मैंने भी साथियों के साथ वहाँ, ऐसे ही एक सिनेमा हाल में. उस फिल्म के पहले सीन में नायक नायिका का विवाह हुआ, दूसरे सीन में नायिका के बाप के अड्डे पर गुंडों से हीरो का संघर्ष, तीसरे हिस्से में नायक नायिका की कॉलेज में पहली मुलाकात और नोक झोंक, मध्यांतर के बाद पहले हीरो की बहन का रेप हुआ और फिर नायिका का बदमाश बाप मारा गया और फिल्म समाप्त होने से पहले नायिका ने नायक के प्रणय निवेदन को स्वीकार किया. फिल्म ख़त्म होने के बाद पूछ ताछ करने पर हम लोगों को पता चला की उस दिन वहां जो सज्जन सिनेमा की रील बदला करते थे, उनकी साली की शादी थी और उनका अनाड़ी असिस्टेंट हमें उल्टा-पुल्टा सिनेमा दिखा रहा था. पर सिनेमा के ख़त्म होते होते कहानी तो समझ आ ही गयी थी और यकीन जानिए मनोरंजन तो खूब हुआ. क्योंकि टुकड़ों टुकड़ों में बिखरी बेतरतीबी में अपनी एक तरतीब होती है, एक लुत्फ़ होता है. ये बेतरतीबी कई बार तरतीब से कहीं अधिक खुशनुमा हो सकती है. ये कुछ वैसा ही होता है जैसे बगिया और जंगल का भेद. “कैनवास पर प्रेम” पढ़ते समय वो फिल्म और कसया की वो शाम याद आ गयी, हाँ तमाम कोशिशों के बाद फिल्म का नाम याद नहीं पड़ सका.
एक नदी की राह में आने वाला हर अवरोध, हर चट्टान उसे एक नया मोड़ और गति देने में सक्षम होते हैं. विमलेश की इस रचना में कथा सरिता के प्रवाह पर ऐसे अवरोध बनाये गए जैसे किसी नदी पर कई सारे छोटे छोटे सुनियोजित से बांध, जो नदी की लय और उसके बहाव को नियंत्रित कर लेने का काम करते हैं. जब और जहाँ जरूरी हुआ वहां बाँध के फाटक उठा दिए गए, कथा सरिता का वेग बढ़ चला. लेखक ने जानबूझ कर बहुत सफाई से उपन्यास की भाषा के प्रवाह को उन जगहों पर एक अलग धारा में मोड़ा है जहाँ से एक सीधी सपाट प्रेम कथा को एक नयी लय मिल सके.
“कैनवास पर प्रेम” में शिल्प के प्रयोग हैं, कहानी कहने का कौशल है, उतार चढ़ाव है पर कहानी तो वही है जिसे हम आप कई उपन्यासों में पढ़ चुके हैं, कई कहानियों में सुन चुके हैं. अगर किसी पेंटिंग से तुलना करें तो कह सकते हैं की “कैनवास पर प्रेम” एक सुन्दर कोलाज सरीखी रचना है. पर इस कोलाज को बनाते समय चित्रकार ने कैनवास पर चढ़े कागज को ढंग से नहीं परखा. एक मटमैले बैकग्राउंड पर बना एक सुन्दर रंगीला कोलाज.
कहानी में नयेपन के सख्त अभाव के बीच किस्सागोई की रोचक शैली, कहानी कहने का अपना एक अलहदा अंदाज़, कथा सरिता के उतार चढ़ाव “कैनवास पर प्रेम” को एक पठनीय रचना बनाते हैं और कहानी कहने के शऊर से रूबरू होने के लिए इस रचना को पढ़ा जाना चाहिए.